सोमवार, 25 अप्रैल 2011

धूप-छाँह

तरुवरों से घिरा रस्ता
धूप थोड़ी छाँह थोड़ी
जिंदगी सा-
नजर तक
आता था सीधा
अंत पर दिखता नहीं था

8 टिप्‍पणियां:

  1. क्षणिका बहुत अच्छी लगी .लिखते रहिये ऐसे ही .बधाई

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  2. रश्मिप्रभा और एलकेपी जी सराहना के लिये धन्यवाद। शिखा जी आपके प्रोत्सान के लिये आभार

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  3. जिंदगी वाकई धूप छाँव का खेल ..बहुत अच्छे पूर्णिमा जी

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  4. कुछ लाइनों में लिखा जीवन का दस्तावेज़ ...

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  5. दिगंबर जी, आप सदा समय निकालकर कुछ न कुछ टिप्पणी लिखते हैं बहुत अच्छा लगता है। वंदना जी प्रोत्साहन के लिये आभार...

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  6. क्षणिकाएं अच्छी लिखती हैं आप।

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