सोमवार, 4 अप्रैल 2011

०२. बुदापैश्त




झर रही है धूप झिलमिल
पत्तियों से
ढँक रहीं पूरा भवन
कोमल लताएँ
और
दीवारों की ईँटें बोलती है

2 टिप्‍पणियां:

  1. पूर्णिमा जी, बहुत दिनों के बाद आपके द्वार पर पहुंच सका। क्षमाप्रार्थी हूं। यहां पर तो आपकी हर क्षणिका अपने आप में अलग प्रभाव डालने वाली है। ब्लाग की नई साज सज्जा आकर्षक है।

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  2. क्षणिका और साज सज्जा पसंद करने के लिये धन्यवाद हेमंत जी।

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